Rajaram Maharaj Jivan Parichay-श्री राजारामजी महाराज जीवन परिचय




श्री राजाराम जी महाराज का जन्म चेत्र शुक्ला ९ सवंत १९३९ को,जोधपुर तहसील के गांव शिकारपुरा में,आंजना कलबी वंश की सींह खांप में एक गरीब किसान के घर हुआ था | जिस समय आपकी आयु लगभग दस वर्ष की थी आपके पिता श्री हरिरामजी का देहांत हो गया और उसके कुछ समय बाद आपकी माता श्रीमती मोतीबाई का भी स्वर्गवास हो गया |
माता-पिता के मृतोप्रांत आपके बड़े भाई श्री रघुनाथ रामजी नंगे सन्यासियों की जमात में चले गये और आप कुछ समय तक अपने चाचा श्री थानाराम जी व कुछ समय अपने मामा श्री मदाराम जी भूरिया,गांव धांधिया के पास रहने लगे |बाद में शिकारपुरा के रबारियो की साधियों को रोटी कपड़ो के बदले एक साल तक चराई और गांव की गायें भी बिना हाथ में लाठी लिए नंगे पाँव दो साल तक राम रटते चराई |
गांव की गवाली छोड़ने के बाद आपने गाँव के ठाकुर के घर १२ रोटिया प्रतिदिन व कपड़ो के बदले हाली का काम संभाल लिया | इस समय आपके होठ केवल ईश्वर के नाम रटने में ही हिला करते थे |एक दिन आपके मन में दान पुण्य करने का विचार आया लेकिन आप एक सम्पति रहित व्यक्ति होने के कारण दान पुण्य में देने के लिए अपने पास अन्य कोई वास्तु न देखकर अपने को मिलने वाले भोजन का आधा भाग नियमित रूप से कुत्तो को डालना शुरू कर दिया | जिसकी शिकायत ठाकुर से होने पर ठाकुर ने १२ रोटियों के स्थान पर ६ रोटियां,फिर ६ में से ३ रोटियां व ३ में से १ रोटी ही प्रतिदिन भेजना शुरू कर दिया | लेकिन दानवीर ने दानशीलता नही छोड़ी और आधा भाग नियमित रूप से कुत्तो को डालते ही रहे |
इस प्रकार की ईश्वर भक्ति और दानशील स्वाभाव से प्रभावित होकर देव भारती नाम के एक पहुच्वान बाबाजी ने( जो शिकारपुरा के तालाब पर मीठ्वानियाँ के पास,जिस पर श्री राजाराम जी रिजका पिलाने का काम करते थे अपना आसन जमाकर रहा करते थे )एक दिन श्री राजाराम जी को अपना सच्चा सेवक समझकर अपने पास बुलाया और अपनी रिधिसिधि श्री राजाराम जी को देकर उन बाबाजी ने जीवित समाधि ले ली |
उसी दिन उधर ठाकुर ने विचार किया की राजिया ( श्री राजाराम जी का ग्रामीण नाम ) को वास्तव में एक रोटी प्रतिदिन कम ही है और किसी भी व्यक्ति को जीवित रहने के लिए काफी नही है अतः ठाकुर ने आपके भोजन की मात्रा फिर से निश्चित करने के उद्देश्य से उन्हें अपने घर भोजन करने बुलाया |
शाम के समय श्री राजाराम जी ईश्वर का नाम लेकर ठाकुर के यहा भोजन करने के लिए गये | आपने बातों ही बातों में साढे सात किलो वजन के आटे की रोटियां आरोग ली, फिर भी आपको भूख मिटाने का आभास नही हुआ | ठाकुर व उसकी पत्नि यह देखकर अचरज करने लगे | उसी दिन शाम को राजाराम जी अपना हाली का धंधा ठाकुर को सौपकर तालाब पर योग माया के मंदिर में आकर राम नाम रटने बैठ गये |उधर गाँव के लोगो को चमत्कार का समाचार मिलने पर उनके दर्शनों के लिए आने का तांता बंध गया |
दुसरे दिन आपने द्वारका तीर्थ करने का विचार किया और आप दंडवत करते करते द्वारका रवाना हुए | पांच दिनों में शिकारपुरा से पारलू पहुचे और एक पीपल के पेड़ के नीचे हजारो नर नारियों के बीच अपना आसन जमाया और उनके बीच से एकाएक इस प्रकार गायब हुए की किसी को पता न लगा |
दस मास बाद द्वारका तीर्थ कर आप शिकारपुरा में जोगमाया के मंदिर में प्रकट हुए और अदभूत चमत्कारी बातें करने लगे, जिस पर विश्वास कर लोग उनकी पूजा करने लग गए | आपको जब लोग अधिक परेशान करने लगे तो आपने ६ मास का मौन रखा | जब आपने शिवरात्रि के दिन मौन खोला उस समय उपस्थित अस्सी हज़ार नर नारियों को व्याख्यान दिया और अनेक चमत्कार बताये जिनका वर्णन आपकी जीवन चरित्र नामक पुस्तक मे विस्तार से किया गया है |
महादेव जी के उपासक होने के कारण आपने शिकारपुरा तालाब पर एक महादेव जी का मंदिर बनवाया, जिसको आजकल हम श्री रामराम जी के मंदिर के नाम से पुकारते है | जिसकी प्रतिष्ठा करते समय अपने भाविको व साधुओं का सत्कार करने के लिए प्रसाद के स्वरुप नाना प्रकार के पकवान बनवाये जिसमे २५० क्विंटल घी खर्च किया गया | उस मंदिर के बन जाने पर आपके बड़े भाई श्री रघुनाथराम जी जमात से पधार गये और दो साल साथ साथ तपस्या करने के बाद श्री रघुनाथराम जी ने समाधि ले ली | आपके भाई की समाधि के बाद आपने अपने स्वयं के रहने के लिए एक बगीची बनाई,जिसको आजकल आश्रम के नाम से पुकारा जाता है |

Source- anjanasamaj.in

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